गीत
कवयित्री रजनी मोरवाल,
जो
अब हिन्दी काव्य जगत में
पर्याप्त चर्चित हैं,
के
दो गीत-नवगीत
संग्रह पढ़ने को मिले -
धूप
उतर आई (२०११)
और
अँजुरी भर प्रीति (२०१३)|
देखने-सुनने
में सामान्य-से
लगने वाले इन शीर्षकों के
बावजूद कवयित्री के रचनात्मक
प्रयत्न सार्थक हुए हैं|
दोनों
संग्रहों में तकरीबन १४० गीतों
का यदि वर्गीकरण किया जाए तो
प्रमुखतः दो खण्ड बन सकते हैं|
पहला
प्रेम-सौन्दर्य
का शाब्दिकनर्तन और दूसरा
वैचारिक संवेदना  और चिंतन|
जहाँ
तक सौंदर्यात्मक आस्वादन का
प्रश्न है तो दोनों प्रकार
के गीतों में भावात्मक नवीनताएं
विद्यमान हैं|
वहां
विचार और कल्पना आदि की समन्वित
शक्ति बिना किसी शब्द वैचित्र्य
के आत्मिक उदगार के रूप में
अभिव्यक्त है|
मेरे
अनुभव से ऐसी सहज साधना तभी
संभव हो पाती है जब रचनाकार
का सम्पूर्ण जीवन गीत-कविता
में समर्पित हो गया हो|
	संख्यात्मक
दृष्टि से पहला खण्ड भारी जान
पड़ता है,
जो
स्वाभाविक ही है|
कविता
 का प्रथम अंकुर तो प्रेम में
ही फूटता है|
इन
गीतों में प्रेम-सौंदर्य
के परिचित स्वरूप -
हर्ष-विषाद,
प्रतीक्षा,
आभास,
त्रेराश्य,
विचलन,
त्याग,
अस्तित्व
अस्मिता और उन्माद आदि प्रकट
हुए हैं जो भाषा के नवीन प्रयोगों
के साथ अधिक संप्रेषणीय हो
गए हैं,
यथा
-
		भूल
गई श्रृंगार बदन का 
		सुधबुध
अपनी बिसराई
		उलझे-उलझे
केश देखकर 
		पतझड़
की ऋतु शरमाई   (पृ.३२,
अँजुरी
भर प्रीति)
				या
		भरभरा
कर ज़िन्दगानी
		ढह
रही है रेत-सी
		हो
रही नीलाम साँसें
		कर्ज
डूबे खेत-सी
		(पृ.२२,
वही)
	दैहिक
भाषा और संगीत का समन्वित रूप
है नृत्य|
मेरे
विचार से नृत्य सशक्त माध्यम
है प्रेम के उदघाटन का वहीं
गीत-कविता
असमर्थ-से
दिखते हैं|
सच्चाई
ये भी है कि काव्य,
नृत्य
से जुड़कर नृत्य की ही संप्रेषणीयता
को बढ़ाता है|
प्रेम
की सूक्ष्म और तरल तरंगों का
एहसास करा पाना बड़ी बात है,
किन्तु
उससे भी बड़ी बात है -
प्रेम
के सन्दर्भ में गीत में नृत्य
को अभिव्यक्त कर लेना|
रजनी
जी इस कला में दीक्षित हैं|
उन्होंने
अपने कुछेक गीतों में प्रेम-सौंदर्य
का शाब्दिक नर्तन किया है,
अर्थात
गीत में नृत्य पैदा करके मीरा
को जी लिया है -
'पग
घुँघरू बाँध मीरा नाची रे'
के
अर्थ में|
रजनी
कहती हैं -
	गुन्चों
पर प्यासा भौंरा 
जब
मस्ती में गाए 
मूक
पड़ी तन की बाँसुरिया
गुंजित
 हो जाए 
जोगन-सी
नाचूँ औ'
गाऊँ
थैया
ता थैया 				(पृ.२४
अँजुरी भर ...)
	
  या
अनुरागी
मन की बाँसुरिया 
गूँजे
साँसों का इकतारा
अभिसारित
अंगों की वीणा 
तार-तार
में नाम तुम्हारा 
तन
सूफी-सा
नाच रहा है 
यह
कैसा दीवानापन है     (पृ.२७,
वही
)
	उपर्युक्त
गीतांशों में जोगन और सूफी
जैसे प्रतीक शब्द आए हैं,
जिनसे
कवयित्री की वीतरागी साधना
का परिचय मिलता है|
रजनी
जी की पीड़ा सामान्य नहीं बल्कि
उनकी पीड़ा में वो आँखें हैं
जिनसे अब दुनिया की हकीक़त
दिखने लगी है|
यही
वो कारक बिन्दु है जहाँ से
कवयित्री का प्रेम-
सौन्दर्य
बोध सामाजिक संवेदना में
परावर्तित हुआ दिखता है|
	आज
ज्वलंत समस्याएं सामान्य-सी
लगने लगी हैं,
जिन्हें
आदमी देखते हुए भी नहीं देखता|
भूख
(और
व्यवस्था भी)
बालकों
से श्रम करवाती है (पृ.१०५),
सड़क
पर कार पोछने वाला बालक हो या
अभावों के बोझ से दबा पिचका
आदमी (पृ.
९५)
व्यवस्थाएं
ऐसे दृश्यों को देखने से कतराती
हैं,
वहीँ
एक रचनाकार संवेदित हो उठता
है|
उसके
लिए आदमी-आदमी
का रिश्ता सर्वोपरि है|
	आज़ादी
के ६४ वर्षों बाद भी हमारी
बुनियादी समस्याएं खत्म होने
की बजाए सुरसा की तरह फैलती
गईं हैं|
रोजगार,
शिक्षा
और आवास तो दूर -
हमारा
स्वागत हुआ है,
मँहगाई-भ्रष्टाचार,
दिवास्वप्न-आश्वासन
जैसी विद्रूपताओं से|
भूमण्डलीकरण
की कुत्सित छाया गरीब का पीछा
कर रही है|
उसको
न शहर भाता है न गाँव|
वह
दोनों जगहों पर छला जाता है,
क्योंकि
-
मुठ्ठी
भर सपने लाए थे
गाँवों
से बनजारे 
शहरों
की सडकों पर गिरकर 
टूट
गए वे सारे x
   x    x    (पृ.५२
:
धूप
उतर आई )
साठ
बरस में हमने देखो,
क्या
तस्वीर बना दी
मँहगाई
 ने  बाजारों  में  कैसी  लूट
मचा दी |
(पृ.५२:धूप
उतर आई )
  
	मानव
का जीवन-धर्म
यदि भूख का पर्याय बन गया तो
इसका अर्थ है,
नैतिकता
की इमारत का ढह जाना|
नैतिकता
और अनैतिकता में फ़र्क का खत्म
हो जाना|
क्या
शर्म,
क्या
अस्मत,
क्या
मंदिर-मस्ज़िद,
भूख
ने जीवन के बेशकीमती मूल्यों
को हमसे छीन लिया|
भूख
केन्द्रित एक गीत अद्वितीय
हैं -
	इस
जहां में भूख ही तो 
आदमी
का धर्म है 
पेट
की ख़ातिर बिकाऊ 
हो
रही हैं अस्मतें 
चंद
रूपयों में बिकी हैं 
आदमी
की किस्मतें 
दिन
दहाड़े भूख से 
नीलाम
होती शर्म है|
     (पृ.
७७
अँजुरी भर ...)
भूख
की मर्माहत संवेदना का यह गीत
है|
विश्वगामी
व्यवस्थाओं ने गाँव को सर्वाधिक
बदहाल किया है|
किसान
आत्महत्या करने लगे और अच्छे
दिन स्वप्न और आँसू  बनकर रह
गए|
	गाँव
की मिट्टी बिछुड़ कर 
आ
रही है अब शहर में 
आंधियाँ
बदलाव की अब 
छा
रही है हर पहर में 
गीत
 पनघट पर अकेला 
सिसकियों
में रो रहा है       (पृ.
८२
अँजुरी भर ...)
स्पष्ट
है कि शहरों की उन्नति में
गाँवों की अवनति हुई है|
	दोनों
संग्रहों से गुजरते हुए अधिकांश
गीत संतोष देते हैं|
इनमें
भाषाई नवीनताएँ हैं किन्तु
बिम्बों-प्रतीकों
के घटाटोप नहीं|
उल्लेखनीय
ये है कि नवगीतों के अलावा
नवगीतीय प्रयास भी सर्वत्र
है|
कुछ
शब्द युग्म जैसे -
किरणों
की चूनर,
बैरागी
मौसम,
ऋतुओं
के आँचल,
कानी
कौड़ी,
ऑक्टोपस
के बाहें,
चंदा
की टिकुली,
अंशू
की हँसुली,
विरह
के झाड़ियाँ,
बूदों
में स्वर का बजना और काँटे बौर
रहे आदि प्रयोगों से गीत हटके
व अर्थ व्यंजक बन पड़े हैं|
वैसे
शब्द चयन में सजगता है पर मेरे
विचार से एकाध जगहों पर शिथिलता
भी दृष्टिगत है|
	अनेक
दृश्य-बिम्बों
में अर्थ को विस्तार देने की
क्षमता है|
कुछ
गीत जैसे "लो
साँझ ढली"
"बदलते
संस्कार"
"काग़जी
संबंध"
"खोया
बचपन सडकों पर"
"भूख"
“मजदूरी”
“बाज़ारवाद”
“स्त्री
अस्मिता”
“लेह”
और “आतंकी”
आदि में अन्विति की प्रधानता
है जो दर्शाती है कि रजनी जी
गीत मर्मज्ञ कवयित्री हैं|
उनका
अनुभव-संसार
उनके सर्जक की व्यावर्तक पहचान
है|
अंत
में एक बात और कहना चाहूँगा|
प्राय:
युवा
पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाओं
में यदाकदा यह स्पष्ट नहीं
हो पाता कि वे कहना क्या चाहते
हैं|
अस्पष्ट
कथ्य,
लय-दोषादी
का कारण भी बन जाता है|
या
कहीं-कहीं
वस्तुगत अध्ययन की एकांगिकता
रचना की अपेक्षित संभावनाओं
को आच्छादित कर लेती है|
ऐसी
दुर्बलताओं से बरक्स रजनी
मोरवाल सजग है|
उनकी
कविताई में अंतवस्तु की
अभिव्यक्ति में कथ्य का भटकाव
नहीं दिखता है|
यह
महत्व की बात है,
अत:
रजनी
जी का भविष्य उज्जवल है|
इनके
कवी-कर्म
का रचना-जगत
में स्वागत होना चाहिए|
- 
वीरेंद्र आस्तिक
 
								
     एल
-६०
गंगा विहार 
								
     कानपुर-२०८०१०
कुमार
रवीन्द्र
क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ हिसार -१२५००५ 
मो. ०९४१६९-९३२६४  
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