वाह
!
बड़ी
सुन्दर बीबी है तुम्हारी और
बच्ची भी बड़ी प्यारी है...
उधर
से सिर्फ़ एक स्माइली उछल कर
आया|
नीरा
ने बात को बढ़ाने की गरज से कहा
“जानते हो मैं तुमसे कुछेक
वर्ष बडी हूँ ?”
उसने
प्रत्युत्तर में कहा “जी जानता
हूँ” और रोज़ की तरह वह फिर गुम
हो गया |
इधर
कई दिनों से यही सिलसिला चल
रहा है,
अभी
कुछ दिन पहले तक नीरा कंप्यूटर
के नाम से ही चिढ़ उठती थी परन्तु
उस दिन बेटी दिव्या ने जबरदस्ती
उसका 'प्रोफाइल
एकाउंट'
बना
दिया कहने लगी “माँ आप अपने
पुराने मित्र खोज लो फिर
पड़ी-पड़ी
बोर नहीं हुआ करोगी |
जब
चाहो गप्प लडाना,
अपने
स्कूल-कॉलेज
की बातें करना,
दुनिया-जहान
के लोगों से जुड़कर उनकी सभ्यता
और इतिहास के बारे में जानकारी
ही ले लिया करना |
तुम
ही तो उस दिन बता रही थी कि
कॉलेज में तुम्हारा मुख्य
विषय इतिहास था |”
उस
वक़्त नीरा चुप ही रही थी या
यूँ कह लो कि खीज ही गयी थी...
अब
क्या कॉलेज ?
क्या
इतिहास ?
वे
संगी-साथी
भी तो दुनिया की इस भीड़ में ना
जाने कहाँ होंगे ?
यह
भी तो हो सकता है कि वे भी उसी
की तरह ज़माने की खुली हवाओं
से अनभिज्ञ अपने-अपने
घरों की खिड़कियाँ बंद किये
बैठे हों |
तीनो
बच्चों के स्कूल जाने के बाद
घर भर में शांती पसर जाती है
|
बड़ी
बेटी दिव्या इस बरस पंद्रह
की हुई है,
उसके
जन्म के बाद पांच वर्षों तक
नीरा की गोद जब तक नहीं हरियाई
थी तब सास-ससुर
और उसके मध्य एक मूक-युद्ध
चल पड़ा था |
वे
सोचते थे कि नीरा जानबूझ कर
ऐसा कर रही है शायद वह छोटे
परिवार के नये चलन की पक्षधर
है,
दुःख
तो इस बात का था कि विक्रांत
भी यही समझता था |
भगवान
का शुक्र था कि उसकी गोद फिर
भरी और इस बार जुड़वाँ प्रशांत-ईशांत
उसकी झोली में थे |
जुड़वाँ
बच्चों को अकेली ही नीरा ने
कैसे संभाला है यह वही बेहतर
जानती है |
बच्चे
जब इकठ्ठा होते हैं तो घर भर
में भूचाल आ जाता है |
विक्रांत
ज्यादातर दौरे पर रहता है,
वैसे
वह अगर घर में हों तब भी क्या
फ़र्क पड़ जाता है ?
आँखों
पर चश्मा चढ़ाए अख़बार में मुँह
घुसाए बैठा रहता है |
उसका
कहना है “घर है कोई होटल तो
नहीं जो बच्चे अपने मन मुताबिक
न रह पाएं,
क्यों
सारा दिन तुम सफाई के पीछे पड़ी
रहती हो?
चाहो
तो कोई कोर्से ज्वाइन कर लो,
लेडीज
क्लब ही ज्वाइन कर लो ?
पूरे
दिन घर में पड़ी एकाकीपन झेलती
हो,
अपना
मन कहीं लगाओगी तो गुस्सा भी
कम आएगा |”
नीरा
कैसे कहे कि अब उसका तन-मन
और न ही उम्र है ये सब सीखने-सिखाने
की |
इन
क्लबों का हिस्सा बनकर बेकार
के ठहाके लगाना उसे सुहाएगा
क्या ?
वह
नहीं जानती कितनी गोसिपिंग
होती है इन क्लबों के नाम पर
?
विक्रांत
सिर्फ़ मुस्कुरा देता है |
विक्रांत
इतवार को अपने ही तरीके से
गुजारना पसंद करता है उसे देर
तक सोना पसंद है फिर बेड-टी
और बिस्तर पर ही हिंदी और
अंग्रेजी के दोनों अख़बार
चाहिए,
जब
तक दोनों अख़बार पढ़ न लें वह
पलंग से नीचे कदम तक नहीं रखता
|
नीरा
की कल्पनाओं में विवाह पूर्व
देखा गया वह दृश्य टहल जाता
है जिसमे पति-पत्नी
बगीचे में बैठे सुबह की चाय
के साथ एक-दूसरे
के साथ को महसूस कर रहे होते
थे |
समय
के साथ-साथ
नीरा ने आदतों से समझौता कर
लिया है |
अब
वह पहले दोनों अख़बार और चाय
विक्रांत को बेडरूम में दे
आती है और फिर स्वयं चाय का कप
लिए बगीचे में चहलकदमी करती
रहती है |
विक्रांत
ने सुहागरात को ही कह दिया था
कि उसे डोमिनेट करना व होना
दोनों ही पसंद नहीं है |
उस
वक़्त नीरा की आँखों में अपने
पिता की छबि घूम गई थी |
पिता
की सख्त हिदायत थी कि सब्जी
न हो तो दाल बना ली जाए,
नाहक
बाज़ार जाकर समय और पैसों की
बर्बादी न की जाए |
जब
नीरा छोटी थी तो पिता हँसते
हुए कहते थे “घर-परिवार
पुरुष की कस्टडी में होना
चाहिए |”
कुछ
बड़ी हुई तो माँ को नम आँखों से
चुपचाप सिर झुकाए काम करते
देखा था,
तब
उसका बालमन सोचा करता था कि
शायद किसी को रुलाना कस्टडी
में लेना होता है |
मन
ही मन वह सोचा करती थी कि आखिरकार
क्यों माँ आ जाती है उनकी कस्टडी
में ?
और
फिर अपने ही पैरों के नाखूनों
से लाचारी में फर्श कुरेदने
लगती हैं |
घर
में परदों के रंग से लेकर नीरा
के लिए वर के चयन तक किसी भी
फैसले में माँ को उसने सिर्फ़
चुप रहते देखा है |
बहरहाल
नीरा ने कभी विक्रांत को डोमिनेट
करने की कोशिश नहीं की परन्तु
क्या उसे 'डोमिनेट'
किया
गया है ?
इस
प्रश्न को वह अपने मस्तिष्क
में लाने से घबराती रही थी |
किसी
के अधीन होना कितना दु:खदायी
होता है ये बात स्त्रियों से
बेहतर भला कौन जान सकता है |
खुद-ब-खुद
अपना समर्पण कर देना दिमागी
परतंत्रता तो देता है परन्तु
शायद शरीर को कुछ हद तक स्वतंत्र
कर देता है और हर स्त्री इसी
एक आज़ादी की चाह में सदियों
से समर्पण करती आ रही है |
नीरा
को ऐसे में वह फेस्बुकिया
मित्र किसी अन्य ब्रह्माण्ड
से आया हुआ शख्स प्रतीत होता
है |
किसी
कन्फेशन-बॉक्स
सा दिन भर की उसकी ऊब और परेशानियों
को चुपचाप सुनता रहता है |
ज्यादा
ही हुआ तो कह भर देता है “आप
महिलाओं को सलाम” नीरा को
हमेशा यही लगता रहता था की यह
पुरुष स्त्रियों की दशा को
हृदय की गहराइयों से समझता-बूझता
होगा |
शुरुआत
उसी ने “नमस्ते” से की थी और
नीरा ने भी जवाब में नमस्ते
लिख दिया था |
आजकल
काम-काज
निबटा कर किसी अनजाने आकर्षण
से बंधी वह इधर ही खिंची चली
आती है |
नीरा
को लगता है इस व्यक्ति का परिवार
कितना सुखी होगा खासकर उसकी
पत्नी ...और
यही बात तो आज नीरा ने उससे
कही थी मगर वह आदतन गुम हो गया
था |
अजीब
लगा था नीरा को ऊंह !..
स्माइली
उसे मुँह चिढ़ाता-सा
लगा था |
समय
के साथ-साथ
कितना कुछ बदल गया है |
बच्चों
की अपनी एक दुनिया बनती चली
जा रही है जिसमें उनके दोस्तों
की प्राथमिकता के आगे माता-पिता
कहीं पिछड़ते चले जा रहे हैं
|
विक्रांत
अपने ऑफ़िस के साथ घर की तमाम
जिम्मेदारियों का ख़्याल रखता
हैं |
नीरा
को किसी बात का कष्ट न हो इसलिए
हर छोटे-बड़े
निर्णय स्वयं ही ले लेता है
|
हँसते
हुए कहता है “नीरा तुम बस आँख
मूँद कर मुझे फ़ॉलो करो अपने
छोटे से दिमाग को परेशान मत
किया करो |
खाओ-पियो
और मस्त रहो तुम अब मेरी कस्टडी
में हो |
नीरा
को धक्का लगता है...क्या
स्त्रियाँ कस्टडी में रखने
के लिए होती हैं ?
क्या
वे सख्त पहरेदारी में रखने
की चीज़ हैं ?
कैसी
अर्धविक्षिप्तता की सी स्थिती
है |
बचपन
से ही प्यार और संबल नाम के
शब्द की अफ़ीम चटा-चटाकर
स्त्रियों को इस नशे का आदी
बना दिया जाता है और यह विक्षिप्तता
स्त्रियों में उम्र व समय के
साथ-साथ
बढ़ती ही जाती है |
रगों
में बहता लाचारी का रक्त इतना
गाढ़ा हो जाता है कि दिमाग
खुद-ब-खुद
अपना नियंत्रण छोड़कर उन तमाम
पुरुषों के अधीन होता जाता
है जो परिवार में क्रमशः पिता,
भाई,
पति
और बेटे के रूप में पाए जाते
हैं और ये सब पुरुष भी स्त्रियों
पर अपनी दया का बोझ लाद-लादकर
जीवन भर महान होने का दर्प
महसूस करते रहते हैं |
वह
स्वयं भी तो इसी नशे की आदी हो
चली है। विक्रांत पर इस हद तक
आश्रित हो गई है कि अकेली एक
कदम भी घर से बाहर निकलना
मुश्किल लगता है और तो और जब
भी विक्रांत दौरे पर जाता है
तो वह बच्चों पर निर्भर हो
जाती है |
नीरा
सोचती है कि इस तरह की डिपेंडेंसी
से उत्पन्न हुई आत्मीयता की
मानसिकता दयनीयता की देन है
या जुड़ाव की ?
विक्रांत
की गैरहाज़िरी में बच्चे अक़्सर
उससे प्रिविलेज लेकर घर में
कभी-कभी
पार्टी आदि रख लेते हैं |
नीरा
उनको मनपसंद खाना परोसकर 'लॉन'
में
आ जाती है,
बच्चों
की खुशियों के बीच वह अवरोध
नहीं बनना चाहती |
मगर
कुछ दिनों से ये पेड़-पोधे
भी उसे ताना देने लगें हैं,
“कि
देखो !
तुम्हारे
भी जड़ें निकल आई हैं"
और
वह घबराकर अपनी देह सहलाने
लगती है जैसे सच में ही उसकी
देह एक तने के समान स्थिर होती
जा रही हो |
तने
का एकाकीपन शाखों ने कब परखा
है ?
जीवन
भर शाखाएँ तो फ़ल-फूलों
से लदीं अपने ही उन्माद में
इतराती रहती हैं,
बस
तना ही है जो बोझ से.......
और
नीरा धम्म से 'लॉन'
में
पड़ी कुर्सी में धँस जाती है
|
न
जाने वह भी क्या सोचता होगा
?
नीरा
के जवाब में जब वह सिर्फ
हा..हा..हा....
लिखता
है तो लगता है जैसे उस पर तरस
खा रहा हो अथवा टालने का प्रयास
कर रहा हो |
दो
महीने हुए उससे चैट करते,
पर
वह बंदा नीरा की सारी कहानी
सुनकर भी सिर्फ़ हाँ...
हूँ..
से
आगे नहीं बढ़ता,
उसके
“कैसी हो ?”
के
जवाब में नीरा दिन भर की खीज
उतार दिया करती है परन्तु उसका
जवाब टस से मस नहीं होता |
वही
दो टूक बात,
आज
तो सुबह-सुबह
उसके भेजे स्माइली को देखकर
तो नीरा को पक्का यकीन हो गया
था कि वह नीरा कि आत्मकथा सुनकर
उसे मज़ाक में उडाता रहा है |
क्या
जाने ऑफिस में अपने दोस्तों
के बीच चटखारे लेकर ही सुनाता
हो ?
नीरा
को खुद पर शर्मिंदगी हुई,
उसने
निर्णय कर लिया कि अब से वह इस
अजनबी फेस्बुकिया मित्र से
कोई बात नहीं करेगी |
अवसादग्रस्त
नीरा उस दोपहर कुछ ज्यादा ही
देर सोती रह गई थी |
कमरे
से बाहर निकली तो प्रशांत-इशांत
डिनर मांगने लगे,
मज़ाक
के मूड में पेट पकड़कर अपनी माँ
के पीछे-पीछे
घूमते बच्चों को खाना परोसते
हुए नीरा सोचती रही कि काश !
कोई
नाभिरज्जु इन बच्चों से जीवन
भर जुड़ा रहे,
दिल-से-दिल
न सही परन्तु पेट-से-पेट
का रिश्ता तो तमाम उम्र बना
रहेगा |
डिनर
के बाद बच्चे अपने-अपने
कमरों में पढ़ने चल दिए,
नीरा
रसोई समेटते-समेटते
फिर एक बार अपने एकाकीपन से
बातें करने लगी |
विक्रांत
को दौरे से लौटने में अभी भी
कुछ दिन बाक़ी हैं |
नींद
तो आज दोपहर ही अपनी कमी पूरी
कर गई थी सो आज देर तक जागना
फिर एक बार नीरा की नियति बनने
वाला था |
नीरा
के इस सुसज्जित बेडरूम में
तमाम विदेशी चीज़ें बिखरी पड़ी
हुई थीं जिनमें से आधी चीजों
का उपयोग तक करना भी उसे नहीं
आता था सिवाय इस हालिया सीखे
कंप्यूटर के |
अब
तो नीरा ने इसके आभासी संसार
से भी एक दूरी कायम करने का
निर्णय कर रखा था |
कमरे
में अजीब-सा
सन्नाटा बांहें पसारे पड़ा था
|
वह
जाने कितनी देर तक पीठ के बल
पड़ी रही और खुली आँखों से अपने
जीवन का जायज़ा लेती रही |
एकाकीपन
की घुटन से हर बार उसकी नज़रें
कमरे के उस खास कोने में जाकर
ठहर जाती थी,
लग
रहा था जैसे कम्प्युटर के भीतर
बैठा कोई उसे घूर रहा हो...बुला
रहा हो ...इस
नीरा उस बेजान वस्तु के आकर्षण
में खिंची चली जा रही थी ......इस
टेंप्टेसन को नकारना नीरा के
लिए एक भयंकर चुनौतीभरा कार्य
था |
जबरन
रोकी गई आसक्ति से नीरा के दिल
की धड़कनें तेज़ी से बढ़ने लगी
थी,
वह
पुनर्विचार करने लगी “हो सकता
है वह ऐसा न हो जैसा नीरा उसके
बारे में सोच रही है,
इन
दो महीनों में उसने कोई बदतमीज़ी
भरी बात या बेज़ा फरमाइश नहीं
की थी |
मन
की बेबसी के समक्ष हार मानते
हुए नीरा ने धड़कते दिल से
कंप्यूटर ऑन किया |
सामने
देखा तो चार मैसेज पड़े हुए थे,
उंह...
इनमें
से दो में 'सुप्रभात'
और
दो में 'शुभरात्री'
लिखा
होगा....पर
यह क्या ?
आज
माज़रा कुछ अलग ही लग रहा था,
यहाँ
तो मैसेज के साथ एक तस्वीर भी
थी |
ओहो
!....
तो
महाशय अपने परिवार की तस्वीर
लाए हैं ?
नीरा
ने चश्मा पहना और पढ़ने लगी “आप
शायद इन दिनों व्यस्त हैं ?
इस
तस्वीर में मेरे साथ मेरी
पुत्री है,
बस
दो जनों का छोटा-सा
परिवार है मेरा,
उस
दिन जो तस्वीर आपने देखी थी
वह पुरानी थी,
कई
वर्ष पूर्व पत्नी से मेरा तलाक
हो चुका है परन्तु पुत्री अब
मेरी "कस्टडी"
में
है और उसके बाद वही चिर-परिचित
स्माइली ...|”
नीरा
ने चश्मा उतार कर मेज़ पर पटक
दिया |
मैसेज-बॉक्स
में लिखा कस्टडी शब्द कंप्यूटर
के अन्दर ही ज़ोर-ज़ोर
से गूंजने लगा है,
गोल-गोल
मंडराता हुआ उस व्यक्ति की
तलाकशुदा पत्नी को लील गया
फिर तस्वीर में हंसती-मुस्कुराती
उसकी बच्ची को चक्रव्यूह बनाकर
कसने लगा और तो और वहाँ से निकल
कर धीरे-धीरे
नीरा के कमज़ोर हो चुके आस्तित्व
को निगलने बढ़ने लगा |
नीरा
ने अपनी हथेलियों से दोनों
कानों को बंद कर लिया |
वह
उठी और तेजी से दिव्या के कमरे
की तरफ दौड़ पड़ी,
उसने
गहरी नींद में सोती हुई दिव्या
को कसकर बाँहों में जकड़ लिया
जैसे कह रही हो नहीं...
अब
बस और नहीं...
बाँहों
की जकड़न से दिव्या जाग गई,
उसकी
अधमुँदी ऑंखें पूछ रही थीं
“माँ तुम अचानक कैसे जाग गई
?”
नीरा
फुसफुसाई,
सब
पुरुष आखिरकार इसी ब्रह्मांड
के होते हैं |
कुमार
रवीन्द्र क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ हिसार -१२५००५
मो. ०९४१६९-९३२६४
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